कष्ट मानसिक घटना है, भौगोलिक घटना नहीं है।
कष्ट मानसिक घटना है, भौगोलिक घटना नहीं है।
अभी भी आप जब बुरा करते हैं तो आपके भीतर अत्यन्त कष्टप्रद स्थितियों का निर्माण होता है।
अभी कभी-कभी होता है, अगर आप निरन्तर बुरा करते जायेंगे तो वह सतत होने लगेगा और करते ही चले जायेंगे तो एक घड़ी ऐसी आ सकती है कि आप चौबीस घण्टे नरक में होंगे।
तो आदमी कभी नरक में होता है, कभी स्वर्ग में होता है। फिर बहुत बुरा आदमी बिल्कुल स्वर्ग में रहने लगता है। जो भले और बुरे दोनों से मुक्त है, वह आदमी मोक्ष में रहने लगता है।
मोक्ष में रहने का मतलब है आनन्द। कोई स्थान हीं है, कहीं स्पेस खोजने पर, ये जगहें नहीं मिलेंगी कि यह रहा स्वर्ग और यह रहा नरक।
इसलिए मनुष्य की जो साइकोलाजी है, उसका जो मानसिक जगत है, उसके विभाजन हैं। तो मानसिक जगत के तीन विभाजन हैं-नरक, स्वर्ग और मोक्ष।
नरक से जैसा आज सुबह मैंने कहा दुख, स्वर्ग से जैसा मैंने आज सुबह कहा सुख, मोक्ष से मेरा मतलब है न सुख, न दुख वह जो आनन्द है।
तो यह मत सोचिए कि कल कभी ऐसा हेगा कि हम बुरा करेंगे तो उसका बुरा फल होगा। यह मत सोचिए कि हम भला करेंगे तो भला फल होगा।
जो भी हम कह रहे हैं, साइमलटेनिअसली, उसी वक्त, क्योंकि यह हो ही नहीं सकता कि अभी क्रोध करूं और अगले जन्म में मुझे उसका फल मिले, यह बड़ी ब्लफ हो जायेंगी, यह बात फिजूल हो जायेगी, क्योंकि उतनी देर क्या होगा?
मैं अभी क्रोध करूं, अगले जन्म में मुझे फल मिले, यह बात बड़ी फिजूल हो जायेगी। इतनी देर क्यों होगी? में जब क्रोध कर रहा हूँ, क्रोध के करते ही क्रोध का फल भ्ल्लाग रहा हूँ। क्रोध के बाहर क्रोध का फल नहीं है।
क्रोध ही मुझे वह पीड़ा दे रहा है जो क्रोध का फल है और जब मैं अक्रोध कर रहा हूँ तो मुझे उसी क्षण फल मिल रहा है, क्योंकि अक्रोध का जो आनन्द है, वही उसका फल है।
जब मैं किसी की हत्या करने जा रहा हूँ तो हत्या करने में ही मैं कष्ट भोग रहा हूँ, जो कि हत्या करने का है और जब मैं किसी की जान बचा रहा हूँ तो जान बचाने में ही मुझे वह सुख मिल रहा है, जो कि उसमें छिपा है।
मेरी बात आप समझ रहे हैं न? कर्म ही फल है, कर्म का कोई फल नहीं होता, कभी भविष्य में नहीं। कर्म-प्रत्येक कर्म का अपना फल स्वयं है। तो बुरा कर्म मैं उसको नहीं कहता जिसके बाद में बुरे फल मिलेंगे।
बुरा कर्म मैं उसको कहता हूँ जिसका बुरा फल उसी क्षण मिल रहा हे। फल को जांचकर ही अनुभव कर लेना कि कर्म बुरा है या भला। जो कर्म अपनी क्रिया के भीतर ही दुख दे, वही बुरा है।
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