हमें कुछ दिखायी नहीं पड़ता।
हमें कुछ दिखायी नहीं पड़ता। वसंत पतझड़ हो जाता है, पतझड़ वसंत हो जाता है; फूल खिलते हैं, कुम्हला जाते हैं, गिर जाते हैं; पक्षी गीत गाते हैं; सूरज उगता है; चांदत्तारों से आकाश भर जाता है; मगर हम बेहोश, हम अपनी आंखें बंद किए, हम अपने सपनों में खोए, हम अपने विचारों में लीन, हम अपने अतीत की स्मृतियों में डूबे या भविष्य की कल्पनाओं में बस चले जा रहे हैं, यंत्रवत्। इसलिए सुबह दिखायी नहीं पड़ती। सुबह तो है। भोर तो है। और सदा ही है।फिर दोहरा दूं, बाहर तो कभी दिन होता है, कभी रात होती है, क्योंकि बाहर द्वंद्व है। हर चीज का द्वंद्व है; अंधेरे का, प्रकाश का; जीवन का, मृत्यु का; सर्दी का, गर्मी का; सौंदर्य का, कुरूपता का; जवानी का, बुढ़ापे का; बाहर तो हर चीज का द्वंद्व है। इसलिए सांझ होती है, सुबह होती है। मगर भीतर तो निर्द्वंद्व अवस्था है। वहां तो एक ही। वहां न सुबह है, न सांझ है; न दिन है न रात है; वहां न गर्मी है, न सर्दी है; वहां न मैं है न तू है। फिर वहां क्या है? अनिर्वचनीय शब्दों में न आए, कुछ ऐसा है। उसमें जागना ही जागना है। और उसको जानना ही भोर है। और वह सदा तुम्हारे भीतर मौजूद है।
रामतीर्थ! भीतर चलो। बाहर बहुत चल लिए, पाया क्या? कब तक और बाहर की आकांक्षाओं ही डूबे रहोगे? भीतर आओ! अपने स्रोत को खोजो! गंगा को गंगोत्री की तरफ बहने दो! बहुत बह चुके बाहर—बाहर, अब मूल की तरफ चलो, अब जड़ की तरफ चलो। और वहीं तुम्हें मिलेगा संतोष, वहीं तुम्हें मिलेगी शांति, वहीं तुम्हें मिलेगा आनंद। उसे ही हमने परमात्मा कहा है, सच्चिदानंद कहा है, सत्यम् शिवम् सुंदरम् कहा है।
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