प्रेम और त्याग। अलग-अलग नहीं हैं। जिसने त्याग जाना, उसने प्रेम जाना। जिसने प्रेम जाना, उसने त्याग जाना।
प्रेम और त्याग। अलग-अलग नहीं हैं।
जिसने त्याग जाना, उसने प्रेम जाना।
जिसने प्रेम जाना, उसने त्याग जाना।
जिसने बिना प्रेम के त्याग जाना,
उसका त्याग झूठा।
और जिसने बिना त्याग के प्रेम जाना,
उसका प्रेम झूठा।
अगर प्रेम सच्चा है,
तो उसके साथ त्याग आएगा ही।
अगर त्याग सच्चा है।
तो उसके भीतर प्रेम की ज्योति जलती ही होगी।
अगर तुम कहो कि यह अंडा ऐसा है
कि जो मुर्गी ने नहीं दिया
तो समझना कि अंडा झूठा है।
फिर किसी फैक्टरी में बना होगा।
फिर प्लास्टिक का होगा।
तुम कहो कि यह मुर्गी अंडे से नहीं आई,
तो यह मुर्गी असली नहीं हो सकती।
असली मुर्गी तो अंडे से ही आती है।
और दुनिया में ऐसा प्रेम पाया जाता है,
जिसमें त्याग नहीं है।
और दुनिया में ऐसा त्याग पाया जाता है,
जिसमें प्रेम नहीं है। ये दोनों झूठे हैं,
थोथे हैं, कृत्रिम हैं, ऊपरी हैं।
संत जिस प्रेम की बात कहते हैं,
उसमें त्याग छाया की तरह आता है।
और संत जिस त्याग की बात करते हैं,
प्रेम उसकी आत्मा है।
अब समझने की
कोशिश करो--ये दोनों जुड़ें क्यों हैं?
जब भी तुम प्रेम करोगे,
तुम्हारे भीतर दान का भाव उठेगा।
प्रेम देता है। प्रेम है ही क्या?
देने की परम आकांक्षा है।
प्रेम बांटता है। प्रेम के पास जो भी है,
लुटाता है। प्रेम बड़ा प्रसन्न होता है दे कर।
प्रेम कंजूस नहीं है।
इसलिए कंजूस प्रेमी नहीं होते।
इसलिए कंजूस प्रेमी हो ही नहीं सकता।
कंजूस से दोस्ती मत बनाना।
कंजूस के पास देने की भावना ही नहीं है,
इसलिए दोस्ती बन नहीं सकती।
और प्रेमी कंजूस नहीं होते।
मनोवैज्ञानिक भी इस बात से राजी हैं
कि जिनके जीवन में बहुत प्रेम है,
वे कभी बहुत धन-संपत्ति पद इकट्ठा नहीं कर पाते।
करेंगे कैसे! इधर आया नहीं कि गया नहीं!
उनके हाथ सदा खुले हैं।
मुक्त आकाश--बंटता रहता है।
और जो धन-पद इकट्ठा कर पाते हैं,
एक बात पकड़ लेना--
उनसे जीवन में प्रेम नहीं पाओगे,
प्रेम का स्वर ही नहीं पाओगे।
वहां तो इकट्ठा करने की दौड़ इतनी है
कि बांटने का सवाल ही कहां उठेगा?
एक पैसा देने में भी घबड़ाहट होगी,
बेचैनी होगी। एक पैसा कम हो गया!
देने का मतलब वहां कम हो जाना है।
और प्रेम की दुनिया में
देने का मतलब और बढ़ जाना है।
प्रेम जितना देता है, उतना बढ़ता है।
🙏🌹ओशो🌹🙏
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कन थोरे कांकर घने
(संत मलूकदास)
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