चिंता का नाश

 चिंता का नाश 


कर्ता मैं नहीं हूं ।
कर्ता परमात्मा है, 
भाग्य है, विधि है, नियति है
कोई और है। 


मैं हूं केवल एक उपकरण मात्र, 

एक पत्ते की तरह। 

हिलाता है हिलता हूं, 

नहीं हिलाता नहीं हिलता हूं; 

जिताता है जीत जाता हूं, 

हराता है हार जाता हूं; 

मेरा कुछ भी नहीं है।


जब मे कर्ता नहीं हूं 

तो चिंता के पैदा होने का 

कोई कारण नहीं उठता। 


हार भी स्वीकृत हो जाती है, 

जीत भी स्वीकृत हो जाती है। 

तो जीत भी मेरी नहीं है तो 

जीत से भी 

अहंकार निर्मित नहीं होता। 

और हार भी मेरी नहीं है, 

तो रात की नींद भी नष्ट नहीं होती; 

चिंता भी नहीं पकड़ती; 

मन में व्यथा भी नहीं आती। 

और भी बड़े मजे की बात है, 

कोई दूसरा आदमी जीत जाए 

तो ईर्ष्या भी नहीं पकड़ती। 

क्योंकि वह आदमी जीत गया, 

इससे कुछ बड़ा नहीं हो गया है; 

परमात्मा की मर्जी। 

उस आदमी का बड़प्पन नहीं है 

कुछ कि जीत गया है, 

और हम हार गए 

तो हम कुछ छोटे हैं; 

परमात्मा की मर्जी।


एक बड़ी 

शांत मानसिक अवस्था 

पैदा हो सकती है 

अगर कर्ता का भाव छूट जाए। 

जरूरी नहीं है कि 

आप परमात्मा को मानें तो ही छूटे। 

बुद्ध ने बिना परमात्मा को माने 

छोड़ दिया, 

थोड़ा कठिन है। 

महावीर ने बिना परमात्मा को माने 

छोड दिया, 

थोड़ा कठिन है।


अगर बिना परमात्मा को 

माने छोड़ना हो 

तो फिर आपको साक्षी— भाव को 

गहरा करना पड़े। 

सिर्फ देखने वाले रह जाएं; 

जो भी हो रहा है, 

देखने वाले रह जाएं। 

हार हो, तो देखें 

कि मैं देख रहा हूं हार हो गई, 

और जीत हो तो देखें 

कि देख रहा हूँ कि जीत हो गई। 

न तो मैं हारता हूं 

और न मैं जीतता हूं 

मैं केवल देखता हूं। 

सुबह आती है तो देख लेता हूं 

सुबह आ गई, 

सांझ होती है तो देख लेता हूं 

सांझ हो गई। 

रात का अंधेरा घिरता है 

तो मान लेता हूं 

कि अंधेरा घिर गया, 

सूरज निकलता है, 

प्रकाश हो जाता है 

तो जान लेता हूं 

कि प्रकाश हो गया। 


मैं अपनी ही जगह 

देखने वाला बना रहता हूं

चाहे रात हो और चाहे दिन, 

चाहे सुख हो चाहे दुख, 

चाहे हार चाहे जीत। 

तब फिर साक्षी में कोई ठहर जाए 

तो कर्ता विलीन हो जाता है; 

क्रिया आपकी नहीं रह जाती, 

किया के केंद्र आप नहीं रह जाते, 

आप दृष्टि, दर्शन, शान के 

केंद्र हो जाते हैं। 

क्रिया आस—पास प्रकृति में 

होती रहती है।


महावीर कहते हैं, 

पेट को भूख लगती है, 

मैं देखता हूं। 

पैर में काटा चुभता है, 

पीड़ा होती है पैर को, 

मैं देखता हूं। 

शरीर रुग्ण होता है, 

बीमारी आती है, 

मैं देखता हू। 

मरते वक्त भी महावीर देखते रहेंगे 

कि शरीर मर रहा है। 

आप नहीं देख पाएंगे कि 

शरीर मर रहा है, 

आपको लगेगा मैं मर रहा हूं। 


जीवन भर का अभ्यास! 


जब सब क्रियाएं आपने कीं, 

तो मौत भी आपको ही करनी पडेगी। 

जब सभी कुछ आपने किया, 

तो फिर मृत्यु आप किस पर छोडेंगे! 

जिसने जीवन को छोड़ दिया, 

वह मृत्यु को भी छोड़ देता है। 

और जो जीवन को देखता रहा 

कि मैं साक्षी हू 

वह मृत्यु को भी देख लेता है 

कि मैं साक्षी हूं।


क्रिया का नाश हो जाए, 

अर्थात कर्ता खो जाए, 

तो चिंता का नाश हो जाता है।


!! ओशो !!


[अध्यात्म उपनिषद :5 ]

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