तुम्हें इतने उत्तर देता हूं भूलकर भी यह मत सोचना कि कोई उत्तर तुम्हारे काम आ जाएगा।

 मैं तुम्हें इतने उत्तर देता हूं भूलकर भी यह मत सोचना कि कोई उत्तर तुम्हारे काम आ जाएगा। 


तुम पूछते हो, मैं देता हूं न दूं तुम बुरा मानोगे; न दूं तो तुम मेरे पास रहने का कारण भी न पाओगे। 


मैं यहां चुप बैठा रहूं तुम विदा हो जाओगे। मैं जो उत्तर दे रहा हूं वे केवल तुम्हें थोड़ी देर और अटकाए रखने को हैं; थोड़ी देर और तुम पास बने रहो; थोड़ी देर और तुम इन प्रश्न—उत्तर के खिलौनों से खेलते रहो। 


शायद यह समय का बीतना ही तुम्हारे बोध के जन्म के लिए कारण बन जाए। शायद खिलौनों से खेलते—खेलते, प्रश्न पूछते—पूछते, उत्तर लेते—लेते, तुम्हें भी दिखाई पड़ जाए कि कितने प्रश्न पूछे हैं, कितने उत्तर पाए हैं, प्रश्न तो वहीं का वहीं खड़ा है, उत्तर तो कोई मिला नहीं। 


तो शायद एक ऐसी घड़ी बोध की धीरे—धीरे परिपक्वता में आ जाए कि तुम इन प्रश्न—उत्तर के खिलौनों को छोड़ दो, आंख खोलो और जीवन की दिशा में—बुद्धिमात्र से नहीं, अपनी समग्रता से—अभियान पर निकल जाओ।


 *मेरे उत्तर तुम्हारे काम नहीं पड़ेंगे* , यह जानकर तुम्हें उत्तर दे रहा हूं। 


जिस दिन तुम्हें भी यह समझ में आ जाएगा कि किसी और के उत्तर किसी दूसरे के काम नहीं पड़ सकते.... उसी दिन यात्रा शुरू होगी। 


यह प्रश्न—उत्तर तो यात्रा के पहले की चर्चा है। यह तो तुम्हें उलझाए रखने के लिए हैं। यह तो कि तुम कहीं उदास न हो जाओ, कहीं तुम्हारी आस्था खो न जाए! जैसे रात अंधेरी हो और हम कहानियां कहते हैं रात गुजार देने को।

      

मुझे पता है, सुबह करीब है; तुम कहीं सो न जाओ, इसलिए कहानी कह रहा हूं। तुम जागे रहो तो सुबह तुम्हारी आंखों को भर देगी। तुम जागे—जागे एक बार सुबह को देख लोगे तो तुम भी सुबह हो जाओगे। रात लंबी है। सो जाने का खतरा है। तुम्हें जगाए रखने की कोशिश कर रहा हूं।

      

ये सारे प्रश्न—उत्तर, प्रश्न—उत्तर नहीं हैं। तुम्हारी तरफ से तुम प्रश्न पूछते हो; मैं जो तुम्हें उत्तर देता हूं वह भी तुम सोच लेते हो, उत्तर होगा। मेरी तरफ से : क्योंकि तुम तैयार नहीं हो जीवंत यात्रा पर जाने के लिए, तुम अभी बुद्धि में ही उलझे हो, इसलिए बुद्धि को थोड़ी बात कर लेता हूं।

      

मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं कि आप जब बोलते हैं तब तो बड़ा आनंद आता है, लेकिन ध्यान करने में नहीं आता। मैं उनसे कहता हूं फिक्र छोड़ो ध्यान की, तुम अभी सुने ही चलो। 


और सारी चेष्टा यह है कि तुम किसी दिन ध्यान करो। लेकिन और थोड़ी देर सुनो, शायद सुनते सुनते किसी दिन मन में यह खयाल आने लगे कि चलो, ध्यान भी करके देखें।

      

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि सुनते हैं आपको, पढ़ते हैं, लेकिन संन्यास का कोई भाव नहीं उठता। 


मैं कहता हूं फिक्र छोड़ो संन्यास की। हालांकि सुनना—समझना सब इसलिए है किसी दिन तुम इतनी गहनता से यात्रा पर निकलो कि अपने पूरे जीवन को रंग लेने की तैयारी हो।

      

यह गैरिक रंग वस्त्रों का ही नहीं है। यह गैरिक रंग तो प्रतीक है कि तुम अपने पूरे, —पूरे प्राणों कौं रंगने को तैयार हो गए हो; कि तुम पागल होने को तैयार हुए हो; कि अब दुनिया हंसेगी तो तुम सहने को तैयार हुए हो; कि अब लोग समझेंगे कि कुछ तुम्हारा मस्तिष्क गड़बड़ हुआ तो तुम इस पर भी हंसने को तैयार हो। यह तो सिर्फ इस बात का सूचक है कि अब तुम चिंता न करोगे कि लोकमत क्या कहता है, लोग क्या कहते हैं। क्योंकि जिसने फिक्र छोडी कि लोग क्या कहते हैं, वही केवल रास्ते पर चला है। 


और जिसने चिंता रखी इस बात की कि लोग क्या कहते हैं, वह लोगों के हिसाब से ही चलता रहा। लोगों के हिसाब से अगर सत्य का रास्ता बनता होता तो सभी पहुंच गए होते।

      

भीड़ निर्णायक नहीं है; व्यक्ति निर्णायक है।

      

लेकिन मैं उनसे कहता हूं कोई फिक्र नहीं, छोड़ो संन्यास की बात, सुनते चलो। पास रहते—रहते शायद बीमारी लग जाए। 


 सत्य संक्रामक है।


.

Comments