मुझसे लोग आ जाते हैं पूछने कि आप ध्यान कब करते हैं?
मुझसे लोग आ जाते हैं पूछने कि आप ध्यान कब करते हैं? मैंने कहा, मैं कोई पागल हूं? मेरा दिमाग खराब हुआ है? वे कहते हैं कि फिर हमें क्यों समझाते हैं? तो मैं समझाता हूं र क्योंकि अगर तुम न करोगे तो तुम पागल हो।
बात सीधी है। उलटी लगती है, जरा भी उलटी नही है। पहुंच गए, मंजिल समाप्त हुई; चलना क्या है? पा लिया, खोज बंद हुई; खोजना क्या है?
साधना का उपयोग करना, यही उस शब्द का मतलब है। साधना का अर्थ है : साधन; साध्य नहीं। जब तुम सिद्ध हो जाओगे, साध्य मिल जाएगा, साधना भी छूट जाएगी। इसे याद रखना, मोह मत बनाना साधना से।
रामकृष्ण ने बहुत दिनों तक भक्ति की साधना की। भक्ति की साधना तो की, लेकिन मन में कहीं एक पीड़ा खलती रही। और वह पीड़ा यह थी कि अभी अद्वैत का अनुभव नहीं हुआ। आंख बंद करते हैं, महिमामयी मां की मूर्ति खड़ी हो जाती है, लेकिन एकांत, परम एकांत—जिसको महावीर ने कैवल्य कहा—उसका कोई अनुभव नहीं हुआ; दूसरा तो मौजूद रहता ही है। परमात्मा सही, लेकिन दूसरा तो दूसरा ही है। और जहा तक दो हैं, वहां तक संसार है। जहां तक द्वंद्व है—मैं हूं तू है —वहां तक संसार है।
रामकृष्ण बड़े पीड़ित थे। फिर उन्हें एक संन्यासी मिल गया अद्वैत का साधक, सिद्ध। तोता पुरी उस संन्यासी का नाम था। रामकृष्ण ने पूछा, मैं क्या करूं? अब कैसे मैं इस द्वंद्व के पार जाऊं? तोता पुरी ने कहा, बहुत कठिन नहीं है। एक तलवार ‘उठाकर मां के दो टुकड़े कर दो।
रामकृष्ण तो कंप गए, रोने लगे—मां के और टुकड़े! और यह आदमी कैसी बात कर रहा है धार्मिक होकर!
परम धर्म इसी भाषा में बोलता है। परम धर्म तलवार की भाषा में बोलता है।
जीसस ने कहा है, मैं तलवार लाया हूं। मैं शांति लेकर नहीं आया हूं तलवार लेकर आया हूं। तोड़ दूंगा सब। टूटने पर ही तो शांति होगी।
तोतापुरी ने कहा, इसमें अड़चन क्या है?
रामकृष्ण ने कहा, तलवार कहां से लाऊंगा वहा?
तोतापुरी हंसने लगा। उसने कहा, जब मां को ले आए—कहा से लाए? कल्पना का ही जाल है। बड़ी मधुर है कल्पना, बड़ी प्रीतिकर है, पर तुमने ही सोचा, माना, रिझाया, बुलाया, आह्वान किया, कल्पना को सजाया हजार—हजार रंगों में, वही कल्पना आज साकार हो गई है। तुमने ही उसमें प्राण डाले हैं। तुमने ही अपनी ज्योति उसमें डाली है। तुमने ही उसे ईंधन दिया, अब ऐसे ही एक तलवार भी बना लो और काट दो।
रामकृष्ण आंख बंद करते, कैप जाते। जैसे ही मां सामने खड़ी होती, हिम्मत ही न होती। तलवार—और मां! परमात्मा को कोई काटता है तलवार से? आंख खोल देते घबड़ाकर कि नहीं, यह न हो सकेगा।
तो तोतापुरी ने कहा, न हो सकेगा तो बात ही छोड़ दो फिर कैवल्य की। मैं चला! मेरे पास समय खराब करने को नहीं है। करना हो तो यह आखिरी मौका है। और यह बचकानी आदत छोड़ो। यह क्या मचा रखा है? रोना, आंसू बहाना! उठाकर एक तलवार हिम्मत से दो टुकड़े तो कर।
रामकृष्ण ने कहा, मेरी कुछ सहायता करो। लगती है बात तुम ठीक कह रहे हो, लेकिन बड़े भाव से सजाया, बड़े भाव से यह मंदिर बनाया है। जीवनभर इसी में गंवाया है, यह मुझसे होता नहीं।
तोतापुरी ने कहा, तो फिर मैं तेरी सहायता करूंगा। वह एक काच का टुकड़ा उठा लाया और उसने कहा कि जब तेरे भीतर मां की प्रतिमा बनेगी तो मैं तेरे माथे पर काच से काट दूंगा। जब मैं काटू और तुझे पीड़ा हो और खून की धार बहने लगे, तब तू भी एक हिम्मत करके भीतर की मा को उठाकर तलवार काट देना। बस, फिर मैं न रुकूंगा। करना हो, कर ले।
अब यह जाने लगा तो बेचारे रामकृष्ण को करना पड़ा। इस आदमी ने उठाकर उनके माथे पर कांच के टुकड़े से लकीर काट दी, खून बहने लगा। जैसे ही उसने लकीर काटी, रामकृष्ण भी हिम्मत किए और तलवार उठाकर भीतर कल्पना को खंडित कर दिया। कल्पना के खंडित होते ही कैवल्य उपलब्ध हो गया। लेकिन बड़ी अड़चन हुई, बड़े दिन लगे।
साधन से भी आदमी की आसक्ति बन जाती है। तुम अगर प्रतिमा बना लेते हो मन में तो उसे छोड़ना मुश्किल हो जाएगा। तुमने अगर ध्यान किया, ध्यान छोड़ना मुश्किल हो जाएगा। प्रार्थना की, प्रार्थना छोड़नी मुश्किल हो जाएगी। और ध्यान रखना, छोड़ना तो पड़ेगा ही। क्योंकि ये उपचार थे, इन्हें किसी कारण से पकड़ा था। इनके पकड़ने की शर्त ही खो गई।
यह तो ऐसे ही है, जैसे कोई नया मकान बनाता है तो एक ढांचा खड़ा करता है, ढांचे के सहारे मकान बना लेता है। फिर मकान बन जाता है तो ढांचे को गिरा देता है। अब तुम्हारा कहीं ढांचे से मोह हो जाए और तुम ढांचे को न गिराओ तो तुम्हारा भवन रहने योग्य न हो पाएगा। ढांचा रहने न देगा। जब भवन बन गया तो ढांचा गिरा देना। जब सीढ़ी चढ़ गए तो सीढ़ी छोड़ देनी है।
इसलिए पहले से ही अगर ध्यान रहे इस बात का कि साधना का उपयोग तो कर लेना है, लेकिन साधना के हाथ में मालकियत नहीं दे देनी है, तो शुभ होता है।
-- ऐस धम्मो सनंतनो #38
🌹🙏🏻🌹ओशो
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