उसे परिचय कहो,बस ठीक है;

 दुनिया में 

मैत्री धीरे-धीरे

खोती गई है।

लोग 

नाममात्र को

मैत्री कहते हैं;

उसे परिचय कहो,बस ठीक है;

इससे ज्यादा नहीं। 

दुनिया से मैत्री का फूल 

तो करीब-करीब खो गया है।

क्योंकि मैत्री के फूल के 

लिए सरलता चाहिए,

निष्कपटता चाहिए। 

कपट, माया अगर 

बीच में आई तो मैत्री 

समाप्त हो जाती है। 

अगर गणित बीच में 

आया तो मैत्री समाप्त 

हो जाती है।

मैत्री तो एक काव्य है

–गणित नहीं, तर्क नहीं। 

मित्र के सामने हम 

अपने को वैसा ही

प्रगट कर देते है

जैसे हम हैं।

इसलिए 

तो मित्र के पास

राहत मिलती है।

कम से कम

कोई तो है जिसके 

पास जाकर 

हमें झूठ नहीं होना पड़ता;

नहीं तो चौबीस घंटे झूठ। 

पत्नी है तो उसके सामने झूठ। 

दफ्तर है, मालिक है, 

तो उसके सामने झूठ। 

बाजार में संगी-साथी हैं,

उनके साथ झूठ। 

सब तरफ झूठ है। 

तो तुम कहीं खुलोगे कहां?

तुम बंद ही बंद मर जाओगे।

हवा का झोंका,

सूरज की किरणें तुममें 

कहां से प्रवेश करेंगी? 

तुम कब्र बन गये। 

कहीं कोई तो हो कहीं, 

जहां तुम शिथिल 

होकर लेट जाओ; 

जहां तुम जैसे हो 

वैसे ही होने को स्वतंत्र होओ;

जहां कोई मांग नहीं है; 

जहां मित्र की आंख 

यह नहीं कह रही है 

कि ऐसे नहीं, ऐसे होओ।

मैत्री 

बड़ी अनूठी घटना है। 

शब्द ही बचा है संसार में। 

मैत्री के फूल

बहुत कम खिलते हैं।

क्योंकि 

मैत्री के फूल के

खिलने के लिए

दो ऐसे व्यक्ति चाहिए 

जो निष्कपट हों,

जिनके बीच माया न हो।

“माया, 

मैत्री को नष्ट करती है।

और लोभ, 

सब कुछ नष्ट कर देता है।’

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