प्रेम
प्रेम 🌹
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बीते दिनों प्रेम के खिलाफ बोलने वालों से बहुत बातें हुईं !
जो सुनने मिला, वह यह था -
-प्रेम-वेम कुछ नहीं होता!
-यह सब किताबी बातें हैं!
- प्रेम कहानियाँ, कवियों-लेखकों की कल्पनाएं मात्र हैं !
-प्रेम के नाम पर एक दूसरे का शोषण है!
आदि आदि !!
इस चर्चा ने मुझे हैरत में डाल दिया कि इतने अधिक लोग प्रेम के अनुभव से वंचित कैसे हैं ?
अधिकतर लोगों के जीवन में प्रेम का न होना यह बताता है कि मनुष्य अभी प्रेम की उच्चता तक न उठ सका है- उल्टे उसने प्रेम को अपनी कामना और वासना की कीचड़ में उतार लिया है !
यही कारण है कि प्रेम का उसका अनुभव, परस्पर लेनदेन और शोषण की दास्तान के अलावा कुछ नहीं है !
अगर प्रेम जैसी प्रचंड ऊर्जा, हमारी चेतना को रूपांतरित न कर सके तो यह बहुत सोचने वाली बात है.. क्योंकि प्रेम हमारी चेतना की स्थिति की खबर देता है.
और खबर यह है कि मनुष्य की चेतना प्रेम तक न उठ सकी है.
वह स्वयं से आगे न बढ़ सकी है.
प्रेम, 'मैं' के साथ कभी मंच साझा नहीं करता.
"मैं " के छोटे से डबरे में, प्रेम जैसे विशाल समुंदर का समा पाना संभव नहीं !
मेरे देखे, प्रेम के विरोध में अधिकतर वही लोग हैं.. जो प्रेम में होने के बावजूद अपने "अहम " को न गला सके !
फिर यही प्रेम से चूके लोग इस लेख में ऊपर कहीं बातें दोहराते पाए जाते हैं..
- प्रेम वेम कुछ नहीं होता,
- सब गिव एंड टेक के रिश्ते हैं,
आदि आदि!
नही, प्रेम, चेतना के विस्तार का महान अवसर है !
प्रेम, जगत को अखंड, अविभाजित देख पाने की बड़ी से बड़ी दृष्टि है!
प्रेम, हमारे अहं को मिटा देने वाला ऐसा डस्टर है.. जो हमारी मनोवैज्ञानिक स्लेट को पूरी तरह कोरा कर देता है.. ताकि उस पर नए चित्र बनाने की संभावना प्रकट हो !
मगर हम अपने अवचेतन से, पुराना लिखा कुछ भी मिटाने को तैयार नहीं होते और.. अपने मत, विचार और मान्यता की कंडीशनिंग से बंधकर वही बासे 'ठस' आदमी बने रहते हैं...
यही कारण है कि हम प्रेम से चूक जाते हैं और प्रेम हमारे भीतर कोई ताजगी नहीं ला पाता !
हम बनियों की तरह प्रेम करते हैं और बुद्धि के तराजू पर 'क्या पाया, क्या दिया' के 'बांट' रखते-उतारते रहते हैं !
फिर प्रेम के अपने लाभ हानि के अनुभव को, पूरी दुनिया का अनुभव मानकर उसका सामान्यीकरण कर देते हैं!
याद रखिए, यदि प्रेम का आप का अनुभव दुख और शोषण का अनुभव है.. तो जान लीजिए कि वह प्रेम का अनुभव नहीं था !
वह सब, जिसने आपके हृदय को दाग दाग और बदसूरत किया है..वह जो कुछ भी था, यह तो तय है कि प्रेम नहीं था !
दुख, दर्द, क्रोध, डिप्रेशन..प्रेम के लक्षण नहीं है!
प्रेम तो परम् आरोग्य का प्रदाता है !
"नियर डेथ एक्सपीरियंस" से लौटे बहुत लोगों ने बताया है कि मृत्यु के आखिरी क्षणों में, घनी पीड़ा में, रोग शैया पर.. पैसा और मकान याद नहीं आते - सिर्फ उन्हीं लोगों के चेहरे याद आते हैं जिन्होंने हमसे निश्चल प्रेम किया है, या जिन से हमने निश्चल प्रेम किया था !
पीड़ा के उन क्षणों में, जब किसी मेडिसिन से आराम नहीं मिलता.., उन "प्रेम स्मृतियों" से बड़ी कोई औषधि नहीं होती !
किसी अपने प्रिय का हाथ, हाथ में हो, तो रोगी का सब दर्द ग़ायब हो जाता है !
सब दवाओं की दवा है.. प्रेम !
प्रेम से बड़ी मसीहाई नहीं !!
अगर किसी से प्रेम है और जीने की ललक है तो.. मनुष्य दुःसाध्य बीमारियों से जीतकर आ जाता है !
किसी परिजन, प्रियजन के हॉस्पिटलाइज्ड हो जाने पर, हम अस्पताल में लाखों रुपए खर्च कर डालते हैं!
घर गृहस्थी बेचकर कर्जा लेकर भी, उसकी सांस सांस बचा लेना चाहते हैं !
आखिर क्यों ?
क्योंकि हम उस से प्रेम करते हैं!
प्रेम, उसमें और हममें विभाजन नहीं देखता!
उसका होना, हमारा होना है !
वह नहीं होगा, तो हमारे होने में भी कमी हो जाएगी !
... मगर ऐसा प्रेम, पड़ोसी के लिए हमारे भीतर नहीं उमड़ता ?
वृक्ष के गिरने से, पशु के मरने से हमारे होने में कमी नहीं आती ??
क्यों? क्योंकि हमारा प्रेम हमारे "मैं" से बंधा है !
वह सारी चीजें जिनसे हम अपने "मैं को दृढ करते हैं, हमें संकुचित कर देती हैं!
" मैं, मेरा घर, मेरा पद, मेरा पैसा, मेरा रूप, मेरे बच्चे, मेरे विचार, मेरा मत.... " इस तरह हम अपने "मैं" को फैलाते चले जाते हैं!
फिर जितना ही हम अपने मैं को बढ़ाते जाते हैं उतना ही सर्व हमारी नजरों से उपेक्षित होता चला जाता है ! फिर हम सड़क पर तेज गाड़ी चलाते हैं.. इस बात से बेपरवाह कि उसी सड़क पर छोटे बच्चे और बूढ़े भी चलते हैं!
हमारी बेपरवाही से एक्सीडेंट होते हैं, मृत्यु होती हैं, जिंदगी उजड़ जाती हैं.. मगर हमें ख्याल ही नहीं आता कि दूसरे का हमसे कुछ कनेक्शन भी है !
जब हमें सर्व का ख्याल होता है तो हमारे हर कृत्य में सजगता जाती है!
प्रेम बार-बार हमारे सामने प्रकट होता है.. मगर प्रेम बार-बार यह प्रश्न भी तो खड़ा करता है कि हमारा प्रेम "मैं" और "मेरों" तक ही क्यों सीमित है ??
नहीं, वह प्रेम की क्रिया नहीं है जिसमें दूसरे का ख्याल न हो, सर्व का बोध न हो !!
देहवाद और पदार्थ उन्मुख संस्कृति ने जिस तत्व की गरिमा को सर्वाधिक रिड्यूस किया है.. वह प्रेम है !
इससे बड़ी नासमझी और क्या हो सकती है कि प्रेम की बात, मजाक और नासमझी, समझी जाने लगी है !
यह चेत जाने की घड़ी है !
प्रेम ही वह प्राणशक्ति है जिससे जगत के सब तार, तंतु जुड़े हैं !
प्रेम न बचा, तो हम, एक दूसरे को खत्म करते जाएंगे.
उसी तरह जिस तरह हम जंगलों को खत्म किए दे रहे हैं,
धरती के खनिज ख़त्म किए दे रहे हैं, वन्य जीव जंतु ख़त्म किए दे रहे हैं.
उसी तरह हम अपनी इकोसिस्टम और मनुष्यता को खत्म कर, अप्राकृतिक मौत मारे जाएंगे.
बीते साल हम सभी ने जितनी मृत्यु देखी है, उतनी सदियों में कभी ही देखी जाती है !
कभी हमारे जीवन का हिस्सा रहे.. तरुण, युवा, वृद्ध देखते-देखते ही आंखों से ओझल हो गए !
.. सब बंगला, गाड़ी, पैसा और उपाय धरे के धरे रह गए !
जरा ख्याल करें कि जो भी लोग जुदा हुए हैं, जब उनकी याद आती है तो हमें क्या याद आता है !
अक्सर तो वही दृश्य जहां कोई अहं नहीं था और निश्छल प्रेम की तरंग, उल्हास और हंसी थी !
प्रेम हर बार हमें यह जता जाता है कि प्रेम से अधिक कीमती कुछ भी नहीं !!
जीवन का जितना सघन बोध, प्रेम में होता है, उतना और किसी बात में नहीं होता !
प्रेमी, अंततः प्रेम ही हो जाता है!
यही प्रेम की सिद्धि है !
यही अविभाजन की, अद्वैत की परम स्थिति है!
इस संसार में जो भी थोड़ा बहुत सौंदर्य है, वह उन्हीं लोगों से है जिनके हृदय में सभी के लिए प्रेम है !
वह क्या करते हैं, क्या कमाते हैं, उनकी क्या हैसियत है इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता.. मगर उनके होने से मनुष्यता की हैसियत बढ़ जाती है !! सतनाम श्री वाहेगुरु जी🌹🌹🌹🙏🪔🪔🪷🪷🌸🌸💐💐
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