सर्वाधिक स्वतंत्र, प्रगति प्रेरक, समाज की गरिबाई दूर करनेवाली व्यवस्था...
- सर्वाधिक स्वतंत्र, प्रगति प्रेरक, समाज की गरिबाई दूर करनेवाली व्यवस्था...
हिंदुस्तान या किसी पूंजीवादी मुपूंजीवादल्क में कोई गरीब आदमी कभी अमीर भी हो सकता है। इसमें बहुत कठिनाई नहीं है। क्योंकि कोई अमीर आदमी कभी गरीब भी हो जाता है। लेकिन रूस में, समाजवाद में सामान्य जनता से सत्ता अधिकारियों के वर्ग में प्रवेश करना सर्वाधिक कठिन हो जाता है। रूस(अब चीन के उदाहरण से समझे) में कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता पाना ही बहुत कठिन मामला है। रूस दो हिस्सों में बंट गया है। एक सामान्य जनता है और एक सत्ताधिकारियों का वर्ग है। यह सत्ताधिकारियों का वर्ग सुनिश्चित और फिक्स्ड हो गया है। यह नीचे की जनता को कोई समान अवसर नहीं देता है। *लेकिन ख्याल सारी दुनिया में यही पैदा किया जाता है कि समाजवाद समान अवसर देगा।*
मैं आपसे कहना चाहता हूं, सिर्फ पूंजीवाद ने सर्वाधिक अवसर देने की सुविधा दी है। और इसको हमें कई तरह से समझ लेना जरूरी होगा।
अगर रूस में मैं जाकर रूस के खिलाफ कोई बात बोलना चाहूं, तो रूस में मैं नहीं बोल सकता हूं। रूस में स्वतंत्रता है , सिर्फ रूस के राजनेता के पक्ष में बोलने के लिए, विपक्ष में बोलने के लिए समान अवसर नहीं है। आप बोल ही नहीं सकते । रूस में एक पत्र रूस की सरकार के खिलाफ नहीं छप सकता; एक किताब नहीं छप सकती; एक लेख नहीं छप सकता; एक कविता नहीं छप सकती। तो रूस में जिसे सरकार के खिलाफ कविता लिखनी है, उसे कौन सा अवसर है? हां, वे कहेंगे कि सरकार के पक्ष में कविता लिखने का समान अवसर है, जिसको भी लिखना हो लिख सकता है। लेकिन इस समान अवसर का क्या मतलब होता है?
यहां कविता की तो बात छोड़ दें, रूस में कोई वैज्ञानिक ऐसी खोज नहीं कर सकता जो सरकारी नीति के प्रतिकूल पड़ती हो। आश्चर्यजनक मामला है! अब वैज्ञानिक कोई कविता तो बनाता नहीं, वह तो जिंदगी के नियम खोजता है। लेकिन रूस में रूसी सरकार यह भी तय करती है कि जिंदगी के कौन से नियम खोजे जाएं और कौन से न खोजे जाएं। कोई ऐसी बात जो कम्युनिज्म के खिलाफ पड़ती हो, नहीं खोजी जा सकती। अगर रूस का मनोवैज्ञानिक यह कहना चाहे कि प्रत्येक आदमी अलग-अलग है, समान नहीं है। तो रूस में यह बात नहीं कही जा सकती, क्योंकि यह समाजवाद के खिलाफ है । *रूस में किसी आदमी को संपत्ति कमाने का अधिकार नहीं है, संपत्ति इकट्ठा करने का भी अधिकार नहीं है।* इसलिए समाजवाद देश अमीर बन नहीं सकता ।
ध्यान रहे, दुनिया में कुछ लोगों की प्रतिभा संपत्ति कमाने की होती है, सबकी नहीं होती। न तो दुनिया में कवि होते हैं सब, न संगीतज्ञ होते हैं सब, न सब वैज्ञानिक होते हैं, और न सभी बिरला, टाटा, अंबानी या राकफेलर या फोर्ड की तरह धन कमाने में समर्थ होते हैं। कुछ लोगों के पास धन कमाने की पैदाइशी क्षमता होती है। कुछ लोगों के पास गीत लिखने की पैदाइशी क्षमता होती है।
समाजवाद में, किसी आदमी के पास, जिसके पास धन कमाने की पैदाइशी क्षमता है, उसे कोई मौका नहीं होगा। इसलिए समान अवसर का क्या मतलब है?
समाजवाद में धन और सत्ता दोनो राजनेता या राज्य की पार्टी के पास होती है । इस लिए समाजवाद में व्यक्ति गुलाम बन के रह जाता है । और इसलिए एक ही पार्टी के पास सत्ता बनी रहती है।
एक कहानी मुझे याद आती है। यहूदियों के बाबत कहा जाता है कि उनमें पैदाइशी धन कमाने की क्षमता होती है। मैंने सुना है कि एक यहूदी एक नाव से यात्रा कर रहा है। बहुत तूफान आ गया और एक बहुत बड़ी मछली, एक बहुत बड़ा मच्छ, उस छोटी सी नाव पर हमला करने लगा। उस मछली से बचने के लिए सिवाय इसके कोई रास्ता न था कि मछली के मुंह में कुछ फेंका जाए। तो जो भी खाने का सामान था, मछली के मुंह में फेंक दिया गया। मछली थोड़ी देर में उसे पचा कर फिर हमला करती है।
आखिर नौबत यह आ गई कि अब आदमियों को फेंकने के सिवाय कोई रास्ता नहीं रहा, अन्यथा वह पूरी नाव को उलट देगी। एक यहूदी भी नाव पर सवार था, सारे लोगों ने उसे उठा कर मछली के मुंह में फेंक दिया। लेकिन वह हमला करती चली गई मछली और एक-एक आदमी को फेंका जाता रहा। जब धीरे-धीरे और लोग भी भीतर पहुंच गए, तब बड़ी हैरानी की बात लोगों ने देखी कि वह यहूदी मछली के पेट में, एक पहले फेंकी गई कुर्सी पर बैठा हुआ है। और उसके पहले संतरों की एक पोटली फेंकी गई थी, वह संतरों की पोटली रखे हुए है और बाकी यात्री जो मछली के पेट में पहुंच गए हैं, उनको एक-एक आने में संतरा बेच रहा है।
यह तो मजाक ही है, लेकिन यहूदी अगर मछली के पेट में भी पहुंच जाए तो कुछ न कुछ बेचने का उपाय खोज लेगा। उसके पास पैदाइशी क्षमता है।
जिन लोगों के पास धन कमाने की पैदाइशी क्षमता है, उनको समाजवादी समाज में कोई अवसर न होगा। जिनके पास विद्रोह की क्षमता है, उनके पास समाजवादी समाज में कोई अवसर न होगा। जिनके पास चिंतन की क्षमता है, उनको चिंतन का कोई मौका न होगा। समाजवादी समाज बहुत तरह का विश्वासी समाज है। सरकार सब तरह के विश्वास और श्रद्धा की फरज्यात मांग करती है, वह विपरीत चिंतन का मौका नहीं देना चाहती।
अब तक दुनिया में ऐसी कोई बात नहीं है जिस पर एकमत हुआ जा सके। इसलिए जिस मुल्क में एकमत होने की मजबूरी हो, उस मुल्क में मनुष्य के मस्तिष्क को संघातक नुकसान पहुंचता है। दुनिया में एक भी बात ऐसी नहीं है जिस पर सब आदमियों को राजी किया जा सके। जब ऐसी स्थिति है, तो सरकार के साथ सबको राजी होने की मजबूरी बहुत खतरनाक है।
इसलिए मैं नहीं मानता हूं कि समाजवाद में समान_अवसर है। हां, इतनी बात जरूर है कि प्रत्येक व्यक्ति को असमान होने की स्वतंत्रता नहीं है, समान होने की मजबूरी है। सबको एक जैसा होना ही पड़ेगा। और जहां एक जैसा होने पड़ने की मजबूरी हो, वहां आत्मा का बहुत दमन हो जाता है। इसलिए समाजवाद में आत्मा का फूल नहीं खिल सकता ।
सिर्फ पूंजीवाद समाज अब तक के विकसित समाजों में सर्वाधिक स्वतंत्र समाज है और प्रत्येक व्यक्ति को एक अर्थों में समान अवसर है। जो भी व्यक्ति जो करना चाहता है, अगर उसके पास क्षमता है, शक्ति है, साहस है, बुद्धि है, तो बराबर कर सकता है, उसे कोई रोकने को नहीं है।
ओशो ।
नये समाज की खोज
प्रवचन - ०८
Comments
Post a Comment